1. पूर्वजों को बुलाने की धारणा
हिंदू परंपरा में यह विश्वास गहरा है कि पितृ-पक्ष के दिनों में पूर्वज धरती पर आते हैं और अपने वंशजों द्वारा अर्पित भोजन तथा तर्पण ग्रहण करते हैं।
जैन धर्म इस विचार को पूरी तरह अस्वीकार करता है।
जैन दर्शन के अनुसार यह मान्यता है कि मृत आत्माएँ किसी विशेष समय में लौटकर आपके द्वारा परोसे गए अन्न का सेवन करती हैं, भ्रम और अज्ञान से उपजा विश्वास है। आत्मा का रास्ता भोजन या जल से तय नहीं होता।
2. मृत्यु के बाद आत्मा की असली यात्रा
जैन धर्म स्पष्ट कहता है— मृत्यु कोई ठहराव नहीं, बल्कि तुरंत अगले जन्म का प्रवेश द्वार है।
आचारांग सूत्र (1.1.2) में कहा गया है:
“जैसे मनुष्य एक घर छोड़कर दूसरा घर लेता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है, अपने कर्मों के अनुसार।”
आत्मा मृत्यु के क्षण भर बाद ही चार गतियों में से किसी एक में जन्म लेती है:
- देव गति (देवता रूप),
- मनुष्य गति (मानव रूप),
- तिर्यंच गति (पशु, पक्षी, कीट या वनस्पति),
- नरक गति (नरकीय जीव)।
इसलिए पूर्वजों के “धरती पर लौटने” की कल्पना, जैन दृष्टिकोण में, मात्र मिथ्या-दर्शन है।
3. क्या मृत आत्माएँ सचमुच अर्पित भोजन ग्रहण करती हैं?
उत्तराध्ययन सूत्र स्पष्ट कहता है:
“हर आत्मा अपनी मुक्ति की स्वयं जिम्मेदार है। कोई दूसरे को न शुद्ध कर सकता है, न मुक्त कर सकता है। हर जीव अपने ही कर्मों का फल पाता है।”
इस सिद्धांत के अनुसार—
पिंडदान, तर्पण या किसी भी विधि से आत्मा की गति नहीं बदली जा सकती।
जो अर्पण हम पूर्वजों के नाम पर करते हैं, वह उनके पास नहीं पहुँचता, बल्कि केवल हमारी श्रद्धा का प्रतीक भर होता है।
4. आत्मा के साथ वास्तव में क्या जाता है?
दसवैकालिक सूत्र कहता है:
“न आभूषण, न संपत्ति, न रिश्तेदार और न बाहरी दान— आत्मा के साथ केवल उसके कर्म और आचरण ही जाते हैं।”
अर्थात—
पूर्वजों को भोग्य पदार्थ नहीं, बल्कि आपके सत्कर्म ही सहारा देते हैं।
अहिंसा, संयम, दान और आत्मचिंतन ही वास्तविक तर्पण है।
5. जैन धर्म में पितृ-पक्ष का कोई स्थान नहीं
जैन परंपरा में मृतकों को बुलाने या भोजन कराने जैसी कोई मान्यता नहीं है।
यहाँ श्रद्धांजलि का अर्थ है— धर्मपालन और पुण्य का संचय।
भगवान महावीर के निर्वाण के बाद, कल्पसूत्र बताता है कि समाज ने क्या किया:
“संघ एकत्र हुआ, धर्म श्रवण किया और दान दिया।”
यानी स्मरण का रूप धर्म था, न कि भोज।
6. अशुभ समय की धारणा
हिंदू समाज पितृ-पक्ष को विवाह, गृह-प्रवेश या नए काम शुरू करने के लिए अशुभ मानता है।
जैन दृष्टि में यह केवल अंधविश्वास है।
उत्तराध्ययन सूत्र कहता है:
“न कोई समय स्वयं शुभ है, न अशुभ; सजगता ही सबसे बड़ा शुभ है।”
इसलिए जैन धर्म मानता है कि कोई भी काम पितृ-पक्ष में आरंभ किया जा सकता है, यदि वह धर्म और नैतिकता के अनुकूल हो।
7. कठोर सत्य
- आत्माएँ लौटकर भोजन नहीं करतीं।
- पितृ-पक्ष जैन सिद्धांत नहीं, केवल एक सांस्कृतिक मान्यता है।
- जैन धर्म इसे भ्रम कहता है।
- आत्मा मृत्यु के क्षण में ही नए जन्म में प्रवेश करती है।
- केवल कर्म और आचरण ही आत्मा के साथ जाते हैं।
8. निष्कर्ष
पितृ-पक्ष का आधार भय और परंपरा है, जबकि जैन धर्म का आधार है निर्भीक सत्य।
पूर्वज लौटकर आपकी थाली में भोजन नहीं करते।
वे अपने नए जीवन की ओर अग्रसर हो चुके हैं।
यदि उन्हें कुछ अर्पित करना है, तो वह केवल सत्कर्म और धर्म होना चाहिए।