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मोदी ने शाकाहारियों और वीगन को फिर से धोखा दिया

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अब टमाटर, बीन्स और आम पर भी मांस-आधारित खाद की छाया

भारत जैसे देश में, जहाँ करोड़ों लोग शाकाहारी भोजन को केवल “डाइट” नहीं बल्कि धर्म, त्याग और संस्कार के रूप में मानते हैं — वहाँ केंद्र सरकार का ताज़ा फैसला सिर्फ़ एक नीति नहीं,
एक नैतिक धोखा है।

13 अगस्त 2025 के उर्वरक नियंत्रण संशोधन (7th Amendment Order 2025) ने खुलेआम रास्ता दे दिया है कि—

  • कसाईखानों और चमड़ा उद्योग के पशु-अवशेष
  • मछलियों से निकले अमीनो एसिड
  • और अन्य मांस-आधारित प्रोटीन हाइड्रोलाइज़ेट

अब भारतीय खेतों में “खाद” बनकर डाले जा सकते हैं।

और ये खादें किस पर डाली जाएँगी?

टमाटर, बीन्स, आलू, मिर्च, आम — यानी भारत की हर थाली का मूल।

यही है नया भारत?
यही है आत्मनिर्भर कृषि?
या फिर यही है वह “सिस्टम” जहाँ धर्म और आस्था का दर्द सबसे कम मायने रखता है?

पहला धोखा:

“हम शाकाहारी भोजन का सम्मान करते हैं” — कहकर खंजर पीछे से मारा गया

जो सरकार गोवर्धन पूजा, गौसेवा और संस्कारों की बात कर सत्ता में बैठी…
उसी सरकार ने अब खेतों में कसाईखानों की मिट्टी मिलाने का आदेश जारी कर दिया।

किसी भी जैन, वैष्णव, लिंगायत, स्वामीनारायण, रामानुजी या धार्मिक शाकाहारी के लिए
यह सिर्फ़ नीति नहीं — घोर अपवित्रता है।

दूसरा धोखा:

जनता से नहीं पूछा, विशेषज्ञों से नहीं पूछा, समाज को बताया भी नहीं

किसानों या नागरिकों को पता भी नहीं चला कि रातों-रात किस तरह खेतों में जाने वाली खादों की “स्रोत-सूची” बदल गई।

एक लोकतंत्र में इतनी संवेदनशील नीति इतने चुपचाप कैसे लागू हो सकती है?

क्या जनता सिर्फ़ टैक्स देने के लिए है?
क्या धर्म सिर्फ़ चुनावों के वक्त याद आता है?

तीसरा धोखा:

“शाकाहार की शुद्धता” पर सीधा प्रहार

सरकार कह रही है —
खाद में क्या डाला गया, इससे फल-सब्ज़ी की “शाकाहार स्थिति” नहीं बदलती।

यानी…
टमाटर में डालो
बीन्स में डालो
अन्न में डालो
मटर में डालो

…और फिर जनता को कह दो:
“शांत रहो, यह शाकाहार है। बस भरोसा रखो।”

लेकिन धार्मिक शाकाहार सिर्फ़ प्लेट में रखे भोजन का नाम नहीं
यह उत्पत्ति की पवित्रता का सिद्धांत है।
अहिंसा का मूल्य है।
मोक्षमार्ग का अनुशासन है।

इसे सरकारें नहीं, सदियों की साधना तय करती है।

BWC ने उठाई आवाज़ — अब देश उठेगा

Beauty Without Cruelty (BWC) ने अपने बयान में साफ़ लिखा:
“यह आदेश करोड़ों शाकाहारियों के नैतिक और धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है।”

और अब यह मुद्दा सिर्फ़ एक NGO का नहीं —
पूरे शाकाहारी भारत का अपमान है।

मांस-आधारित खाद क्यों खतरनाक है?

(धार्मिक + नैतिक + सामाजिक + वैज्ञानिक)

  • धार्मिक समुदायों के भोजन में परोक्ष हिंसा का प्रवेश
  • शाकाहारी थाली की पवित्रता पर प्रहार
  • किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए सूचना का अभाव
  • खाद की उत्पत्ति पर पारदर्शिता शून्य
  • कृषि नीति में कॉरपोरेट-मांस उद्योग की कब्ज़ेदारी बढ़ने का खतरा

यह नीति केवल भूमि प्रदूषण नहीं—
धार्मिक भावनाओं का प्रदूषण भी है।

देश को पूछना चाहिए — किसके दबाव में? किसके लाभ के लिए?

मांस-उद्योग की लॉबी?
खाद कंपनियों की लॉबी?
या फिर कृषि मंत्रालय की वह सोच
जो भारतीय संस्कृति को “अवरोध” मानती है
और पश्चिमी मॉडल को ही सही रास्ता समझती है?

अब समय आ गया है— शाकाहारी भारत को जागना होगा।

आज अगर हम चुप रहे तो कल—

हर सब्ज़ी पर कसाईखाने का साया होगा।
हर अन्न पर हिंसा का धब्बा होगा।
और हर मंदिर-समुदाय की रसोई अपवित्र कहलाएगी।

सरकार किसी भी धर्म से ऊपर नहीं।
धर्म को परिभाषित करने का अधिकार किसी मंत्रालय को नहीं।
अहिंसा की मर्यादा को बदलने का अधिकार किसी सत्ता को नहीं।

जैन समाज, वैष्णव समाज, शाकाहारी भारत — आवाज़ उठाओ

क्योंकि यह सिर्फ़ खेत की मिट्टी का सवाल नहीं,

आस्था की आत्मा का सवाल है।

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